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लेखनी कहानी -26-May-2022 खामोश दर्द

खामोश दर्द 


योगेश्वर सिंह मन ही मन उबल रहे थे । रविवार का दिन था और सुबह के नौ बज गये थे लेकिन ना तो बेटी टीना जगी , ना बेटा रोहन और ना ही बहू लक्षिता । सब खूंटी तानकर सो रहे थे । पत्नी दिव्या की ड्यूटी किसी परीक्षा में लगी हुई थी इसलिए वह सुबह अपना टिफिन तैयार कर ले गयी थी । योगेश्वर सिंह को आठ साढे आठ बजे नाश्ता चाहिए । बहुत तेज भूख लगती है उन्हें उस समय । लेकिन यहां तो कोई जगा ही नहीं तो नाश्ता कौन बनाये । अब इस उम्र में भी वह नाश्ता तैयार करें क्या ? 

उपेक्षा से वे उदिग्न महसूस कर रहे थे या भूख से बेहाल थे , वे खुद ही निश्चित नहीं कर पा रहे थे । लेकिन मन ही मन क्रोधित अवश्य थे । ये कैसी मजबूरी थी कि गुस्सा भी प्रकट नहीं करने दे रही थी । बहू को कुछ कह नहीं सकते वरना दहेज़ उत्पीडन का केस दर्ज होने की संभावना बन सकती थी या फिर घरेलू हिंसा का आरोप लग सकता था । बेटा तो अपना था मगर अब वो अपना कहाँ रहा है । अब उसे उनकी सारी बातें अटपटी , बचकानी, बेसलैस लगने लगी थी । आखिर इंजीनियर जो है । तार्किक सोच तो केवल इंजीनियर ही रखते हैं बाकी तो सब दिल से सोचते हैं दिमाग से नहीं । दिमाग से सोचने का ठेका इंजीनियर और वकीलों ने ले रखा है बस। 

बेटी आज की युवा नारी है । अपनी मर्जी की मालकिन । पढ़ी लिखी है । वकालत पढ़ी है । तर्क कम कुतर्क ज्यादा करती है । वकीलों की एक खास बात यह है कि सही या गलत हर बात में वे स्वयं को ही सही साबित करने में लगे रहते हैं । भावनाओं से ऊपर उठे रहते हैं । उन्हें सिर्फ खुद से मतलब होता है बाकी किसी और से नहीं । ये गुण शायद पेशे से ही आते होंगे हर किसी में । पर जो भी हो , उससे कुछ भी कहना लड़कियों पर अत्याचार की श्रेणी में आ जाता है और लड़के लड़की में भेदभाव का आरोप तुरंत मढ़ दिया जाता है । दकियानूसी और रूढिवादी सोच रखने वाला प्राणी घोषित होने का खतरा बढ़ जाता है । 

योगेश्वर सिंह सामाजिक ज्ञान के अध्यापक थे । या यों कहें तो स्कूल व्याख्याता थे । घर चलाने के लिए तनख्वाह के अलावा और कोई आय का जरिया नहीं था । चार व्यक्तियों का परिवार था । गांव में मां बाप रह रहे थे उनका खर्चा भी योगेश्वर सिंह को ही उठाना था । सीमित आय होने से हाथ थोड़ा तंग था । योगेश्वर सिंह ने पत्नी दिव्या के समक्ष नौकरी करने का प्रस्ताव रखा । दिव्या भी घर की हालत देख ही रही थी इसलिए उसने भी इस प्रस्ताव को तुरंत स्वीकार कर लिया । 

सरकारी नौकरी के लिए विज्ञापन निकला और दिव्या ने फॉर्म भर दिया । तृतीय श्रेणी अध्यापिका बन गई वह । अब दोनों नौकरी करने लगे और परिवार की अच्छे से परवरिश करने लगे । योगेश्वर सिंह का प्रमोशन हो गया और वे सीनियर स्कूल में प्रधानाचार्य बन गये । पढ़ाई के साथ साथ प्रशासनिक व्यवस्था का भी उत्तरदायित्व भी उनके ऊपर आ गया । 

बेटा रोहन को इंजीनियर बनाना था इसके लिये उसे कोटा भेजना पड़ा । कोचिंग संस्थान की मोटी फीस , हॉस्टल का खर्चा सब कुछ बहुत मंहगा था । लेकिन बच्चों के भविष्य के लिए तो सब कुछ करना पड़ता है मां बाप को । यह तो उनकी जिम्मेदारी है । बाद में बेटा बेटी मां बाप को संभालें या ना संभालें यह उनकी मेहरबानी है । आजकल , ऐसा ही चलन चल रहा है । औलादें अपना अधिकार तो जानती हैं लेकिन कर्तव्य नहीं । ये कैसा जमाना आ गया है । जैसे कुछ अराजक लोग किसी आंदोलन के नाम पर बीच सड़क पर बैठकर सरकार को गाली देकर अभिव्यक्ति की आजादी खतरे में होने का बिगुल बजाते हैं । लोगों का उस सड़क से आना जाना बंद कर अपनी अराजकता का तांडव करते हैं । पुलिस पर पत्थर फेंककर , तलवार चलाकर उसे मारते हैं और जब पुलिस अपने बचाव में गोली चलाती है तो रंडी रोना रोते हैं कि हाय, गरीब लोगों को तानाशाह सरकार ने मार डाला । कुछ इसी तरह का माहौल घरों में भी होने लगा है । मीठा मीठा गपगप और कड़वा कड़वा थू थू । बच्चे अक्सर मां बाप से कहते पाये जाते हैं कि आपने मेरे लिए किया ही क्या है ? जो किया वह आपका फर्ज था कोई अहसान नहीं । मगर वही बच्चे मां बाप को तो फर्ज याद दिलाते हैं मगर खुद भूल जाते हैं कि उनका भी कोई फर्ज होता है । शायद यही आधुनिकता है । 

रोहन पढ़ लिखकर इंजीनियर बन गया । अच्छी कंपनी में जॉब लग गई । इधर योगेश्वर सिंह का भी प्रमोशन हो गया और वे जिला शिक्षा अधिकारी बन गये । प्रमोशन पर उनको दूसरे शहर जाना पड़ा । बच्चों को वहीं पर छोडकर दूसरे शहर अकेले ही चले गये । नौकरी के साथ साथ खाना बनाने का काम भी करना पड़ता था । मगर और कोई विकल्प था नहीं इसलिए कर लेते थे । 

फिर समय ने पलटा खाया और योगेश्वर सिंह का एक और प्रमोशन हो गया । अब वे उप निदेशक बन गये । चूंकि उनकी ख्याति अच्छी थी इसलिए उनको उनकी पसंद की जगह यानी घर में ही पोस्टिंग मिल गयी । जान बची तो लाखों पाये , लौट के बुद्धू घर को आये । 

इस सब आपाधापी में उन्होंने अपने रहने के लिए एक बढिया सा मकान भी बनवा लिया था । पति पत्नी दोनों की आय से ना केवल घर का सारा खर्च बढिया हो रहा था अपितु अच्छी खासी बचत भी हो रही थी । 

योगेश्वर सिंह ने स्थाई आय के दृष्टिकोण से एक प्लॉट बेटे रोहन के नाम खरीद लिया । उस पर कॉमर्शियल कॉम्प्लेक्स बनाकर स्थायी आय का स्रोत बनाना चाहते थे वे । आर्किटेक्ट ने पचास साठ लाख रुपए की अनुमानित लागत बता दी । योगेश्वर सिंह ने अपनी गणित लगा ली और काम शुरू कर दिया । किसी ने शिकायत कर दी और मौके पर प्रशासन ने निर्माण कार्य रुकवा दिया । 

इस बीच बेटे रोहन की शादी खूब धूमधाम से की उन्होंने । खूब पैसा खर्च किया । मन के सारे अरमान निकाल लिये उन्होंने उस शादी में । सब पैसे खर्च कर दिये शादी में । पैसे ले देकर निर्माण कार्य फिर से करवाना प्रारंभ किया उन्होंने । बहू लक्षिता भी जॉब करती थी । उस कॉम्प्लेक्स की लागत बढती जा रही थी । सत्तर लाख रुपये तो अब तक खर्च हो चुके थे मगर अभी कम से कम तीस लाख रुपये और चाहिए थे । कहां से लायें  इतना पैसा ? योगेश्वर सिंह ने रोहन से कहा तो रोहन कहने लगा 
"आपको इतना बड़ा प्रोजेक्ट हाथ में लेना ही नहीं चाहिये था । अब हम भी कोई फ्लैट खरीदना चाहते हैं पापा,  मगर सारा पैसा इस कॉम्प्लेक्स में जा रहा है" । 
रोहन की बातोँ से योगेश्वर सिंह को बहुत ठेस पहुंची । कहने लगे 
"कॉम्प्लेक्स मैंने अपने नाम नहीं बनवाया है । तेरे नाम से ही बनवाया है । मुझे उसमें से कुछ नहीं चाहिए । मैं तो अपनी तनख्वाह में से पैसे लगा ही रहा हूँ ना " । उनकी आवाज में तल्खी थी । 

रोहन को महसूस हुआ कि उसकी बातों से पापा को ठेस लगी है इसलिए डैमेज कंट्रोल करते हुए कहने लगा 
"मेरे नाम हो या आपके नाम , बात तो एक ही है । मगर बात तो पैसों की है । अब कहां से लाये पैसे" ? 
योगेश्वर सिंह ने कहा "कुछ पैसे लक्षिता के खाते में पड़े हों तो काम में ले ले । बाकी और देखते हैं"  । 
"नहीं पापा, उसके पैसों को हाथ नहीं लगायेंगे । उसे अच्छा नहीं लगेगा" । 

योगेश्वर सिंह को बड़ा आश्चर्य हुआ । कॉम्प्लेक्स रोहन के नाम पर बन रहा है । मालिकाना हक उसी का रहेगा । योगेश्वर सिंह उसमें अपनी सारी जमा पूंजी लगा रहे हैं । वह सब मंजूर है । मगर लक्षिता के पैसे अलग हैं ? उसे अच्छा नहीं लगेगा । मतलब उसकी इच्छाओं का तो ध्यान है मगर हमें क्या अच्छा लगेगा क्या नहीं, इसकी कोई परवाह नहीं ।  हमारे पैसों पर सबका अधिकार है मगर तुम्हारे पैसों पर सबका अधिकार नहीं । ये कैसी विडम्बना है । 

योगेश्वर सिंह ने कुछ नहीं कहा । अपने मित्र से बीस लाख रुपए उधार लिये । रिटायरमेंट होने पर जो पैसा मिलेगा , उसमें से चुका देंगे । बीच में काम रोकना ठीक नहीं है । और इस तरह वह कॉम्प्लेक्स बन गया । अब उसको लीज पर लेने के लिए लोग आने लगे । एक लाख रुपया महीने की लीज राशि ऑफर की गई । रोहन को अब वह फैसला अच्छा लगने लगा था । 

बेटी टीना की शादी भी करनी थी । कम से कम पच्चीस लाख रुपये तो खर्च होने थे । घर में कुछ जमा पूंजी नहीं थी । अगले छ: महीने में शादी होनी है । इस अवधि में दोनों की तनख्वाह से अधिकतम दस लाख रुपये बच सकते थे । बाकी पंद्रह लाख रुपए कहाँ से आयेंगे ?  

दिव्या और योगेश्वर सिंह आपस में बातें कर रहे थे । योगेश्वर सिंह ने कहा "रोहन और लक्षिता से भी तो ले सकते हैं पैसे ? अब तो लीज का पैसा भी उसके खाते में आने लगा है" । 

दिव्या ने कहा "नहीं, उसके पैसे नहीं लेंगे और ना ही बहू से कहेंगे पैसों के लिये । ऐसा करो , कुछ आप अपने प्रॉविडेंट फंड से निकाल लो , कुछ मेरे प्रॉविडेंट फंड से निकाल लेंगे । इससे काम चल जायेगा । रिटायरमेंट पर पैसों का क्या करना है" ? 

योगेश्वर सिंह सोचते ही रह गये कि ये कैसा जमाना है ? बच्चों पर सारा पैसा लुटा दो मगर जब जरूरत हो तो बच्चों से पैसे मत मांगो । उनसे ना तो नाश्ता बनाने को कहो और ना ही खाना बनाने को । सुबह जल्दी जगने के लिए भी नहीं कह सकते । बड़ा अजीब चलन है जमाने का । क्या यही आधुनिकता है ? हां , अगर यही आधुनिकता है तो इससे अच्छी तो हमारी दकियानूसी सोच ही है जहाँ सबके अधिकार हैं और सबकी ही जिम्मेदारियां भी हैं । 

ये आसमां इतना खामोश क्यों है ? क्या ये भी योगेश्वर सिंह के दर्द से परेशान है ? ये कैसा दर्द है जिसकी कोई जुबान नहीं है । बस, खामोशी ही खामोशी है यहां वहां सब जगह । बड़ा भयंकर है यह खामोश दर्द । काश, कोई तो इसे जान पाता । 

हरिशंकर गोयल "हरि"
9.10.21 

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6 Comments

Chirag chirag

27-May-2022 05:31 PM

Sundar

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Seema Priyadarshini sahay

27-May-2022 01:59 PM

बहुत खूबसूरत

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Gunjan Kamal

27-May-2022 01:12 AM

बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति 👌🙏🏻

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Hari Shanker Goyal "Hari"

27-May-2022 01:14 AM

धन्यवाद जी

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